Aug 2, 2016

त्याग पत्र का सही समय

  त्याग पत्र का सही समय 

कोई मरना नहीं चाहता इसलिए यह पूछना बेकार है कि मरने का कौन सा सही समय है | फिर भी समझदार आदमी सोचते हैं कि बड़ी बेइज़्ज़ती या बड़ा दुःख देखने से पहले मर जाना ही ठीक रहता है | यदि कोई व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सके तो कम से कम सही समय पर त्याग पत्र ही दे दे तो इतिहास में दर्ज हो सकता है, यशस्वी हो सकता है | जैसे यदि इंदिरा गाँधी १९७५ में अदालत का फैसला आते ही यह कहते हुए त्याग पत्र दे देती कि हालाँकि मैंने सरकारी साधनों का दुरुपयोग नहीं किया फिर भी माननीय न्यायालय ने मेरा चुनाव रद्द करना उचित समझा है तो मैं न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए त्याग पत्र देती हूँ या अटल जी १३ दिन के हवाई प्रधान मंत्री बनने से पहले ही कह देते कि हम राम-मंदिर के मुद्दे पर चुनाव लड़े थे |हमें इतना बहुमत नहीं मिला कि हम राम मंदिर बना सकें इसलिए हमारी पार्टी के सभी सांसद त्याग पत्र देते हैं |फिर देखते दोनों का जलवा |

 लेकिन कुर्सी इतनी आसानी से छूटती थोड़े ही है | और छूटे भी क्यों ?एक बार कुर्सी मिल जाए तो सात पीढ़ियों का इंतज़ाम हो जाता है जैसे कि पिछली शताब्दी के भूतपूर्व मुख्यमंत्रीगण भी शान से सरकारी बँगलों में जमे हुए हैं |यदि जाँच करवाई जाए तो हो सकता है बहुत से माननीयों ने इन बँगलों को किराए पर उठा दिया हो |जितना किराया लगता है उतने का तो वहाँ भैंसों के लिए रिज़का हो जाता होगा |

लेकिन आज जब पढ़ा कि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन ने त्याग पत्र की पेशकश की है तो अच्छा लगा |अच्छा इसलिए नहीं कि हम मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं | अच्छा इसलिए लगा कि कोई तो है जो ७५ का होने के बाद संन्यास की सोच सकता है |वैसे बाल अभी तक काले हैं और फिर जिस देश में  हाई स्कूल के सर्टिफिकेट में जन्म तिथि दर्ज होने पर भी राष्ट्रीय बहस छिड़ सकती है तो बेन के लिए दो साल खींचना कौन बड़ी बात थी | 

वैसे ७५ के तो हम भी होने वाले हैं लेकिन जब कोई पद ही नहीं है तो छोड़ें क्या ? पेंशन छोड़ दें तो खाएँ क्या ? कुछ ज्ञानी लोग कहते हैं कि इस उम्र में रेड वाइन पीने से खून का दौरा ठीक रहता है और धमनियों में खून के थक्के नहीं जमते लेकिन पेंशन छोड़े बिना ही दवाओं के खर्चे के बाद दारू का नंबर तो दूर, तूअर दाल का नंबर ही नहीं आता |हम तो यह कर सकते हैं कि अपने परिवार की भाजपा सरकार के सलाहकार मंडल से इस्तीफा दे सकते हैं | लेकिन यह इस्तीफा भी कोई इस्तीफा है लल्लू ?  

वैसे सब जानते हैं कि ठहरी हुई झील में भी अन्दर अन्दर छोटी मछली,बड़ी मछली का खेल चलता रहता है |ठीक है भागते भूत की लँगोटी ही भली |वैसे कुछ भूत इतने बदमाश होते हैं कि लँगोटी भी नहीं पहनते और ऊपर शरीर पर तेल और लगाकर रखते हैं कि कोई पकड़े तो फिसल जाएँ |

परसाई जी ने अपनी ही शैली में अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने वन -विभाग की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया |यदि इस्तीफा नहीं दिया होता तो नौकरी से निकाल दिया जाता |कुछ लोग धक्का देकर निकले जाने पर भी चौखट पकड़ कर खड़े रहते हैं |कुर्सी से ऐसे चिपक जाते हैं कि खुरच-खुरचकर निकालने पर भी कुछ न कुछ चिपका रह ही जाता है | सरकारी बँगला भी जब तक सामान फिंकवाया नहीं जाता तब तक नहीं छोड़ते |और छोड़ने से पहले सरकारी पंखे, ट्यूब लाईट, परदे,गद्दे और भी कुछ काम का सामान जो ले जा सकते हैं, ले जाते हैं |अभी कुछ पूर्व मंत्रियों के बँगलों के खाली करवाने की बात आई है लेकिन जब खाली हो तब जानिए |अब तक तो  किसी को पता ही नहीं था कि अमुक-अमुक संत कई दशक गुजरने के बाद भी जमे हुए |कुछ दिन बाद फिर जनता भूल जाएगी और जमाई मुफ्त का माल खाते रहेंगे | 

खैर, आनंदी बेन ने सही समय पर सही काम किया |हार्दिक पटेल के हार्दिक असहयोग के अच्छा तो कहीं के राज्यपाल का पद ही भला | भुगते जो मुख्यमंत्री हो |राज्यपाल का क्या है-कभी तीर्थयात्रा कर ली, तो कभी दीक्षांत समारोह में भाषण दे दिया, किसी की पुस्तक का राजभवन में ही विमोचन कर दिया या कभी अंधे बच्चों से राखी बँधवा ली |उपलब्धियाँ पहुँचीं या नहीं, अच्छे दिन आए या नहीं वे जानें जिन्हें अब पंजाब और यू.पी. में चुनाव लड़ना है |

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